जाति गणना के आंकड़े आखिर क्यों हैं ‘दोधारी तलवार’, अगर चूक गए तो इसी चुनाव में निपट जाएंगी कई पार्टियां

बिहार में जातिगत सर्वे के आंकड़े सामने आने के बाद पूरे देश में इसको लेकर बहस जारी है. जहां एक ओर राजनीतिक उठापटक देखने को मिल रही है वहीं आने वाले चुनावों में भी इसका खासा असर देखा जा सकता है.

गांधी जयंती पर जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछड़ा वर्ग 27.12%, अति पिछड़ा वर्ग 36.12%, मुसलमान 17.52%, अनुसूचित जाति 19% और अनुसूचित जनजाति 1.68% हैं.

इस संख्या के आधार पर ये अनुमान लगाया जा रहा है कि आंकड़ों के सामने आने के बाद पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं को तो आने वाले चुनाव में फायदा मिल ही सकता है लेकिन दूसरी पार्टियों को इसका नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. साथ ही इस सर्वे के जारी होने के बाद देश की राजनीति ‘धर्म बनाम राजनीति’ के दो धड़ों में विभाजित हो गई है.

साथ ही राजनीतिक आंकलन करने वाले आमलोग ये अंदाजा लगाने में जुट गए हैं कि इन आंकड़ों के सामने आने के बाद इसका चुनावी फायदा किसे मिलने वाला है, इंडिया गठबंधन को या एनडीए को.

बिहार में आरक्षण और जाति का सवाल बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा रहा है. यह इस बात से समझा जा सकता है कि साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कैसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा किए जाने के एक बयान पर पूरी चुनावी फिजा ही बदल गई थी. बिहार में 1990 के बाद से लगातार दलित-पिछड़ों की ही सरकार बनती आ रही है.

बीच-बीच में बीजेपी भी सत्ता में आई लेकिन वो भी जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन के साथ. आज भी बिहार में अकेले अपने दम पर बीजेपी के सत्ता में आने की उम्मीदें कम ही दिखती हैं. कांग्रेस के कमजोर पड़ते ही सवर्ण और वैश्य वोटर बीजेपी के साथ चला गया, जिसे इस पार्टी का कोर वोटर कहा जाता है.

ओबीसी जातियों को भी बीजेपी तोड़ने में सफल रही. बीजेपी ने इन वोटर्स में सेंधमारी के लिए उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश साहनी, चिराग पासवान, नित्यानंद राय, रामकृपाल यादव, जीतनराम मांझी जैसे दलित-पिछड़ी जाति के नेताओं को अपनी पार्टी से जोड़ा. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले अब माहौल बदल गया है.

बिहार जातीय सर्वे अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति
बिहार में जातीय सर्वे को अगड़ा बनाम पिछड़ा के बीच एक सियासी जंग के रूप में भी देखा जा रहा है. हालांकि ये सियासी जंग पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बीच भी हो सकती है.

पिछले कुछ समय में बिहार में पिछड़ा वर्ग की अगुवाई में यादव पिछड़ों के नेता बनकर उभरे हैं.

आरजेडी का राजनीतिक आधार यादव-मुस्लिम समीकरण रहा है. शुरूआती दौर में ‘अत्यंत पिछड़ी जातियां’ और दलित समुदाय मजबूती के साथ लालू यादव के साथ जुड़ा था, लेकिन इनमें से बहुत सारी जातियां खिसक कर बीजेपी के साथ चली गईं.

इसका एक बहुत बड़ा कारण यादव जाति के लोगों का दलित-पिछड़ी जातियों पर बढ़ता जातीय वर्चस्व रहा है. ‘लव-कुश’ यानी कुर्मी-कुशवाहा पर नीतीश कुमार का दावा मजबूत रहा है, लेकिन पिछले चुनाव में धर्म की राजनीति करने वाली बीजेपी का इस समाज ने साथ दिया.

हालांकि अब जब अति पिछड़ा वर्ग बिहार में ज्यादा है ऐसे में यदि ईसीटी गोलबंद होता है तो सवर्ण, ओबीसी वोट बैंक को साधने वाली पार्टियों को नुकसान हो सकता है.

बिहार में पिछड़ों की राजनीति करने वाली सरकार ने बिहार की कुल 209 जातियों का डेटा जारी किया है. इससे पहले, इन जातीयों के आंकड़ों का अनुमान 1931 में हुई आखिरी जाति जनगणना में किया गया था. अब उपलब्ध जाति समूहों के नए आंकड़ों के साथ, राजनीतिक दलों से उन समुदायों को लुभाने और उन्हें साधने के अपने प्रयासों को और तेज करने की उम्मीद है जो उनका बड़ा वोट बैंक बन सकते हैं.

राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी ने द वायर से हुई बातचीत में कहा, ”जाति जनगणना इसलिए कराई गई है ताकि पिछड़ी जातियों को एकजुट किया जा सके. अब इन आंकड़ों के आधार पर अलग-अलग जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां आरक्षण की मांग करेंगी. जाति गणना पूरी तरह से एक राजनीतिक कदम है.”

ओबीसी समूह और ईबीसी समूह की कुल जनसंख्या 63% है, जो चुनाव की दृष्टि काफी जरूरी है. ओबीसी में भी 14.26 प्रतिशत आबादी के साथ यादव आगे हैं. वहीं, मुसलमानों की आबादी लगभग 17.70% है. कुल मिलाकर ये आंकड़ा 31 प्रतिशत सामने आता है और दोनों ही राजद के कोर वोट बैंक माने जाते हैं, इसलिए चुनावी तौर पर राजद मजबूत स्थिति में नजर आ रही है. इसके अलावा ईबीसी जातियों के वोट छोटे-छोटे राजनीतिक दलों में बिखरे हुए हैं, इसलिए राजनीतिक दल अब इन्हें गोलबंद करने की कोशिशों में भी जुट जाएंगे.

पहले नाई जाति की आबादी तय नहीं थी, लेकिन जनगणना से पता चला है कि उनकी आबादी 1.56% है. इसी तरह, दुसाध, धारी और धाराही जातियों का कोई अनुमानित आंकड़ा नहीं था, लेकिन वर्तमान आंकड़ों से पता चला कि उनकी आबादी 5.31% है जबकि चमार जाति की आबादी 5.25% है. ऐसे में अब इन जातियों के आंकड़े सामने आने के बाद आगामी चुनावों में ये भी सीटों को लेकर मोलभाव कर सकते हैं.

क्यों दोधारी तलवार बन गया है बिहार में जातीय सर्वे?
इस आंकड़ों का यदि विश्लेषण किया जाए तो 36 फीसदी यानी सबसे ज्यादा आबादी अत्यंत पिछड़ों की है, जिनमें लगभग 100 से अधिक जातियां आती हैं. इनमें से बहुत सारी जातियां ऐसी हैं, जिनका न तो किसी पार्टी के संगठनों में और न विधानसभा या विधान परिषद में प्रतिनिधित्व है.

सबसे ज्यादा जातीय सर्वे कराने वाली पार्टियों के लिए ही आगामी चुनाव लिटमस टेस्ट की तरह साबित हो सकता है. जिसमें आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड का टिकट बंटवारा सभी जाति और कोटी को ध्यान में रखकर करना होगा.

बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. वहीं अत्यंत पिछड़ी जातियों की संख्या 36 प्रतिशत है. 40 सीटों पर 36 फीसदी का अनुमान लगाया जाए तो वो लगभग 14 होता है. ऐसे में क्या इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में अत्यंत पिछड़ी जातियों को 14 सीटें दे पाएगा? इसी अनुसार बिहार में यादवों की जनसंख्या 14 प्रतिशत है. ऐसे में लोकसभा चुनाव में उनकी दावेदारी सिर्फ 5 या 6 सीटों की ही बनती है.

वहीं ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत व कायस्थ की कुल आबादी 10.56 प्रतिशत है. ऐसे में बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर सवर्णों की दावेदारी का आंकड़ा सिर्फ चार सीटों पर सिमट जाता है, इसका साफ अर्थ ये है कि चार सवर्णों को ही  लोकसभा चुनाव में टिकट मिलने की उम्मीद है.

इस मुद्दे पर जब हमने वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क से बातचीत की तो उन्होंने बताया, “इसके तीन साइड इफेक्ट सामने आ रहे हैं. एक तो जिस तरह से जातियों को प्रतिनिधित्व दिखाया गया है उस हिसाब से जातीय नेतृत्व उभरेगा. संभव है कि जिन जातियों से अब तक कोई नेतृत्व नहीं है उनसे नई पार्टियां भी बन जाएं. जैसे मुसलमानों की आबादी बिहार में 17 प्रतिशत है तो तमाम जातियों पर ये भारी पड़ती है  ऐसे में बिहार में उसी हिसाब से मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी की मांग भी उठ सकती है.”

उन्होंने आगे कहा, “क्योंकि अभी की स्थिति में देखें तो बिहार के मंत्रिमंडल में मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा है. वहीं दूसरा खतरा ये है कि इसमें उन तत्वों को भी हाथ सेंकने का मौका मिल जाएगा जो धर्म के आधार पर समाज का विभाजन करना चाहते हैं. इसमें बीजेपी सबसे आगे है.”

आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड की तुलना करते हुए ओमप्रकाश अश्क बताते हैं, “आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड की अगर तुलना करें तो दोनों में आरजेडी की ताकत ज्यादा दिखती रही है. ये अलग बात है गठजोड़ के हिसाब से स्थितियां बदलती रहती हैं.”

गोलबंदी पर अश्क बताते हैं, “इससे गैरबराबरी की भावना पनपेगी, दलित और पिछड़े एक हो जाएं तो उनकी आबादी बहुत ज्यादा हो जाएगी और अति पिछड़ी जातियों की गोलबंदी भी दिख सकती है. हालांकि आम आदमी इसपर कुछ रिएक्ट नहीं कर रहा है. उन्हें कुछ नफा नुकसान नहीं दिख रहा है. इसलिए लग रहा है जातीय गोलबंदी उस तरह से नहीं हो पाएगी जो पहले देखी जाती रही है.”

अश्क ने आगे कहा, “ये एक सिर्फ सामाजिक टूल है जो आरजेडी ये बोलकर इस्तेमाल करेगी कि हमने वो करके दिखा दिया जो अब तक कोई नहीं कर पाया.” वहीं इस आंकड़े का सामने आने के बाद आकलन किया जा रहा है कि देश के कई राज्यों में अति पिछड़ा वर्ग की संख्या ज्यादा है ऐसे में अब राजनेताओं की नजर उन पर ज्यादा टिक सकती है. हाईन्यूज़ !

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